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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2642
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र : सर्ल प्रश्नोत्तर

प्रश्न- काण्ट के कठोरतावाद के रूप में आधुनिक बुद्धिवाद की व्याख्या कीजिए।

अथवा
"काण्ट का नैतिक दर्शन कठोर है। विवेचना कीजिए।
सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. काण्ट के अनुसार कठोरतावाद क्या है?
2. काण्ट के नैतिक सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।

उत्तर -

काण्ट का कठोरतावाद सम्बन्धी सिद्धान्त

आधुनिक युग में नैतिक सिद्धान्त के रूप में बुद्धिवाद के प्रतिपादन का श्रेय काण्ट को है। काण्ट के बुद्धिवाद को कठोरतावाद कहा जाता है।

काण्ट के अनुसार, व्यक्ति को उसकी व्यावहारिक बुद्धि से नैतिक नियमों का ज्ञान प्राप्त हो जाता है। यह ज्ञान व्यक्ति को सहज बोध के रूप में मिलता है। इस स्थिति में व्यक्ति के व्यवहार के विषय में निर्देशन का कार्य व्यावहारिक बुद्धि के माध्यम से होता है। व्यक्ति की बौद्धिक शक्ति ही उसकी विशिष्टता है तथा नैतिकता की भावना भी इसी पर निर्भर है। यदि किसी व्यक्ति के पास बुद्धि न हो तो उसके पास नैतिकता भी नहीं हो सकती। इस स्थिति में मनुष्य तथा पशु में कोई अन्तर नहीं होगा क्योंकि पशुओं में नैतिकता नहीं होती। काण्ट ने नैतिकता के क्षेत्र में, बुद्धिवाद को महत्व दिया। अतः काण्ट के सिद्धान्त को बुद्धिवाद कहा जाता है। काण्ट का सिद्धान्त विवेक या नीतिशास्त्र के नाम से भी जाना जाता है। प्रायः सुखवादी सिद्धान्तों को भावनाओं के नीतिशास्त्र के नाम से भी जाना जाता है।

काण्ट ने बुद्धिवाद का प्रतिपादन किया तथा व्यक्ति के जीवन में कर्तव्यों को विशेष स्थान दिया। काण्ट के अनुसार, व्यक्ति को कर्म अपनी इच्छाओं या भावनाओं की इच्छापूर्ति के लिए नहीं करना चाहिए। कर्तव्य का पालन कर्तव्य के लिए होना चाहिए। काण्ट ने अपने सिद्धान्त में भावनाओं तथा इच्छाओं को दमन करने की बात भी कही। काण्ट ने यह भी कहा कि कर्म या कर्तव्य के परिणाम पर भी विचार नहीं करना चाहिए।

काण्ट के अनुसार, विवेक द्वारा कामनाओं का दमन ही कर्तव्य है इस धारणा को मानने के कारण ही काण्ट के सिद्धान्त को कठोरतावाद या नैतिक शुद्धतावाद का सिद्धान्त भी कहा जाता है।

काण्ट के नैतिक सिद्धान्त की व्याख्या

काण्ट ने बुद्धिवाद या कठोरतावाद का भी प्रतिपादन किया। कांण्ट ने अपने सिद्धान्त में निम्नलिखित बातों का समावेश किया 

(1) संकल्प की स्वतंत्रता - काण्ट के अनुसार, नैतिक कर्म के लिए 'संकल्प की मान्यता अति आवश्यक है। संकल्प के अभाव में किसी भी कर्म की नैतिकता सम्भव नहीं है। संकल्प के बिना किया गया कर्म नीति-शून्य कर्म होगा।

(2) आत्मा की अमरता - काण्ट के अनुसार, आत्मा की अमरता एक नैतिक मान्यता है। नैतिक कर्मों में दण्ड एवं परस्कार की व्यवस्था को लागू करने के लिए आत्मा की अमरता भी स्वीकार करना आवश्यक है।

(3) ईश्वर के अस्तित्व में आस्था - काण्ट ने नैतिकता की तीसरी मान्यता ईश्वर के अस्तित्व में आस्था को स्वीकार किया। काण्ट के अनुसार, ईश्वर के अस्तित्व में आस्था के बिना नैतिकता सम्भव नहीं है। 

(4) सद्गुण परम-साध्य - काण्ट के अनुसार, व्यक्ति के लिए परम साध्य सद्गुण ही है। काण्ट ने व्यक्ति की सदिच्छा को अपने आप में शुभ माना है। काण्ट के शब्दों में "इस संसार में अथवा इसके बाहर भी सदिच्छा के अतिरिक्त कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है जो निरपेक्ष रूप से शुभ हो।'

"There is nothing is the world or even out it, that can be called good without qualification, except a good will."  - Kant

काण्ट ने सदिच्छा को सद्गुण माना है। सदिच्छा का तात्पर्य निरपेक्ष आदेश को पूर्ण करना है। काण्ट के अनुसार, कर्तव्य के लिए कर्तव्य करना ही व्यक्ति के लिए परम-साध्य है। परम शुद्ध में सद्गुण के साथ आनन्द भी सम्मिलित होता है।

काण्ट के अनुसार "व्यक्ति की अपनी पूर्णता तथा अन्य व्यक्तियों के आनन्द में वृद्धि ही नैतिक लक्ष्य है।' 

(5) भावनाओं का विरोध - बुद्धि को अधिक महत्व देने के कारण काण्ट हर प्रकार की भावनाओं का विरोध करता है। वह व्यक्ति की अनुभूतियों तथा उसकी भावनाओं को नैतिक जीवन के लिए आवश्यक नहीं मानता है। काण्ट ने मात्र निर्धारित नैतिक नियमों के प्रति आस्था की भावना को ही महत्व दिया है तथा पवित्र माना है। काण्ट के अनुसार, सभी संवेग नैतिकता विरोधी हैं। इस कारण भी काण्ट के नैतिक सिद्धान्त को कठोरतावाद कहा जाता है। 

(6) व्यक्ति का आत्म-नियन्त्रित होना- काण्ट के अनुसार, मनुष्य में संवेदनाएँ तथा बुद्धि सभी होती हैं, परन्तु मनुष्य में बुद्धि एवं विवेक प्रबल होता है। इन्द्रियाँ मनुष्य को सुख की ओर प्रेरित करती हैं जबकि बुद्धि व्यक्ति को विवेक की ओर प्रेरित करती है। व्यक्ति के मध्य बुद्धि का विवेक में संघर्ष चलता रहता है। इसी संघर्ष पर संकल्प की नैतिकता निर्भर होती है। व्यक्ति का नैतिक जीवन भी प्रमुख होता है। काण्ट के अनुसार, बुद्धि ही नियमों को निर्धारित करती है तथा लागू करती है। जब व्यक्ति बुद्धि के अनुसार कार्य करता है तब वह स्वतन्त्र माना जाता है। जब वह भावनाओं के अनुसार कार्य करता है तब वह परतन्त्र माना जाता है। 

(7) नैतिक नियमों की व्याख्या - काण्ट ने व्यक्ति के लिए नैतिक नियमों को स्वीकार किया है। काण्ट के अनुसार, नैतिक नियम अपने आप में निरपेक्ष आदेश होते हैं। निरपेक्ष आदेश होने के साथ-साथ ये सार्वभौमिक भी होते हैं। ये मनुष्य के स्वभाव पर आधारित होते हैं। काण्ट के अनुसार, शुभ संकल्प ही परम संकल्प है। काण्ट ने नैतिक गुणों को व्यक्ति के आन्तरिक गुण माना है। नैतिक नियमों की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है कि यदि नैतिक नियम के अनुसार झूठ बोलना गलत है तथा सत्य बोलना उचित है तो व्यक्ति को सदैव सत्य बोलना चाहिए। काण्ट ने नैतिक निर्णयों को अपने आप में निरपेक्ष निर्णय माना है। नैतिक नियम बौद्धिक होते हैं तथा बौद्धिक नियम किसी भी प्रकार से अपवाद नहीं होते हैं। अपवाद न होने की स्थिति में नैतिक नियम निरपेक्ष आदेश होते हैं।

(8) कर्तव्यों की व्याख्या - नैतिक सिद्धान्तों में कर्तव्यों की व्याख्या भी अनिवार्य है। काण्ट ने कर्तव्य के सिद्धान्त को महत्वपूर्ण माना है। काण्ट के अनुसार, व्यक्ति किसी भी कार्य को भावनाओं से प्रेरित होकर नहीं करता है। अपितु नैतिकता के लिए कर्तव्य अति आवश्यक है। कर्तव्यों का निर्धारण नैतिक नियमों के माध्यम से होता है। नैतिक नियम बौद्धिक होते हैं। कर्तव्यों के पालन में व्यक्ति को प्रेम, करुणा, सहानुभूति को कोई स्थान नहीं देना चाहिए। किसी व्यक्ति के कष्ट से प्रेरित होकर किया गया कार्य कर्तव्य नहीं कहलाता। काण्ट के अनुसार कर्तव्यों में बाध्यता पाई जाती है अर्थात् कर्तव्य के पालन में किसी प्रकार की कोई छूट नहीं दी जाती है।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ की अवधारणा की विवेचना कीजिए।
  2. प्रश्न- गीता में प्रतिपादित लोक संग्रह की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  3. प्रश्न- गीता के नैतिक या आदर्श सिद्धान्त का संक्षिप्त विश्लेषण कीजिए।
  4. प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की विस्तारपूर्वक व्याख्या कीजिए।
  5. प्रश्न- गीता में वर्णित गुण की विवेचना कीजिए।
  6. प्रश्न- गीता में प्रतिपादित स्वधर्म की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  7. प्रश्न- गीता में वर्णित योग शब्द की विवेचना कीजिए।
  8. प्रश्न- गीता में वर्णित वर्ण एवं आश्रम का विवेचन कीजिए।
  9. प्रश्न- स्थितप्रज्ञ के लक्षण क्या हैं? क्या मनुष्य जीवन में इस स्थिति को प्राप्त कर सकता है? संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  10. प्रश्न- निष्काम कर्मयोग का परिचय दीजिए।
  11. प्रश्न- गीता में प्रवृत्ति और निवृत्ति से आप क्या समझते हैं?
  12. प्रश्न- कर्म के सिद्धान्त का महत्व बताइए।
  13. प्रश्न- कर्म सिद्धान्त के दोष बताइए।
  14. प्रश्न- कर्मयोग के सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  15. प्रश्न- लोक संग्रह पर टिप्पणी लिखिए।
  16. प्रश्न- भगवद्गीता में 'लोकसंग्रह के आदर्श' की विवेचना कीजिए।
  17. प्रश्न- पुरुषार्थ के अर्थ एवं महत्व की विवेचना कीजिए।
  18. प्रश्न- पुरुषार्थ की अवधारणा व विशेषताएँ स्पष्ट कीजिए।
  19. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त के रूप में पुरुषार्थ की व्याख्या कीजिए।
  20. प्रश्न- विभिन्न पुरुषार्थ की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  21. प्रश्न- पुरुषार्थ का विश्लेषण कीजिए।
  22. प्रश्न- पुरुषार्थ में सन्निहित मानवीय मूल्यों के अन्तर्सम्बन्ध की व्याख्या कीजिए।
  23. प्रश्न- पुरुषार्थ किसे कहते हैं?
  24. प्रश्न- धर्म किसे कहते हैं?
  25. प्रश्न- अर्थ किसे कहते हैं?
  26. प्रश्न- काम किसे कहते हैं?
  27. प्रश्न- धर्म पुरुषार्थ का जीवन में क्या महत्व है?
  28. प्रश्न- भारतीय नीतिशास्त्र में 'पुनर्जन्म के सिद्धान्त' की व्याख्या कीजिए।
  29. प्रश्न- धर्म-दर्शन के स्वरूप परिभाषा दीजिए तथा इसके क्षेत्रों का उल्लेख करते हुए इसकी समस्याओं का विश्लेषण कीजिए।
  30. प्रश्न- धर्म-दर्शन एवं धर्म के परस्पर सम्बन्धों का विश्लेषणात्मक विवेचन कीजिए।
  31. प्रश्न- धर्म-दर्शन के स्वरूप की व्याख्या कीजिए। यह ईश्वरशास्त्र से किस प्रकार भिन्न है?
  32. प्रश्न- धर्म और दर्शन में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  33. प्रश्न- धर्म का क्या अभिप्राय है? सामान्य धर्म के लिए मनुस्मृति में किन मानवीय गुणों का उल्लेख किया गया है?
  34. प्रश्न- विशिष्ट धर्म किसे कहते हैं? इसके प्रमुख स्वरूपों की व्याख्या कीजिए।
  35. प्रश्न- सामान्य धर्म और विशिष्ट धर्म में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  36. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं? व्याख्या कीजिए।
  37. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र के पंचमहाव्रत सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  38. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र के अणुव्रत सिद्धान्त का विवेचना कीजिए।
  39. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र की तात्विक पृष्ठभूमि का विवेचन कीजिए।
  40. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
  41. प्रश्न- परमश्रेय की संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  42. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र में 'त्रिरत्न' की अवधारणा की विवेचन कीजिए।
  43. प्रश्न- बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग की व्याख्या कीजिए।
  44. प्रश्न- 'बोधिसत्व' किसे कहते हैं? स्पष्ट कीजिए।
  45. प्रश्न- निर्वाण के स्वरूप का विवेचन कीजिए।
  46. प्रश्न- 'अर्हत्' पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  47. प्रश्न- बुद्ध के नीतिशास्त्र में साधन विचार का विवेचन कीजिए।
  48. प्रश्न- बौद्ध के नीतिशास्त्र सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  49. प्रश्न- गांधीवाद से आप क्या समझते हैं? राज्य के कार्यक्षेत्र के सम्बन्ध में महात्मा गांधी की विचारधारा का वर्णन कीजिए।
  50. प्रश्न- गांधीवादी दर्शन का मूल आधार धर्म (सत्य और अहिंसा) था, संक्षेप में स्पष्ट करें।
  51. प्रश्न- गांधी जी की कार्य पद्धति पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
  52. प्रश्न- सत्याग्रह से आप क्या समझते हैं संक्षेप में समझाइये?
  53. प्रश्न- महात्मा गाँधी द्वारा प्रतिपादित ट्रस्टीशिप सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  54. प्रश्न- गाँधी जी के सात सामाजिक पाप कौन-से हैं?
  55. प्रश्न- गाँधी जी के एकादश व्रत कौन-से हैं? व्याख्या कीजिए।
  56. प्रश्न- नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं? परिभाषा देते हुए इसका अर्थ स्पष्ट कीजिए।
  57. प्रश्न- नीतिशास्त्र मानवशास्त्र से किस तरह जुड़ा है? स्पष्ट कीजिये।
  58. प्रश्न- नीतिशास्त्र की विषय-वस्तु क्या है? स्पष्ट कीजिए।
  59. प्रश्न- नीतिशास्त्र से क्या अभिप्राय है? इसकी प्रकृति एवं क्षेत्र बताते हुए भारतीय एवं पाश्चात्य नीतिशास्त्र में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  60. प्रश्न- नीतिशास्त्र की प्रणालियों पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए।
  61. प्रश्न- टेलीलॉजिकल नैतिकता और कर्तव्य आधारित नैतिकता का क्या अर्थ है? इन दोनों में अन्तर बताइए।
  62. प्रश्न- कान्ट के नैतिक सिद्धान्त को समझाइए।
  63. प्रश्न- नैतिक विकास का क्या अर्थ है? नैतिक विकास के चरणों का उल्लेख कीजिए।
  64. प्रश्न- नीतिशास्त्र एक आदर्श निर्देशक सिद्धान्त है। व्याख्या कीजिए।
  65. प्रश्न- भारतीय नीतिशास्त्र को प्राथमिक जड़े कहाँ मिलती हैं? स्पष्ट कीजिए।
  66. प्रश्न- क्या नीतिशास्त्र एक विज्ञान है?
  67. प्रश्न- नैतिक तथा नैतिक-शून्य कर्म क्या है? व्याख्या कीजिए।
  68. प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की अवधारणा की व्याख्या कीजिए और उसकी काण्ट के कर्तव्य की अवधारणा से तुलना कीजिए।
  69. प्रश्न- नैतिक कर्म तथा नैतिक-शून्य कर्म में अन्तर लिखिए।
  70. प्रश्न- ऐच्छिक तथा अनैच्छिक कर्मों से आप क्या समझते हैं?
  71. प्रश्न- ऐच्छिक व अनैच्छिक कर्म में अन्तर बताइए।
  72. प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? इसका स्वरूप तथा विशेषताएँ बताइए।
  73. प्रश्न- क्या नैतिक निर्णय कर्मों के परिणाम के आधार पर होता है? विवेचना कीजिए।
  74. प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं अन्य निर्णयों में क्या अन्तर है?
  75. प्रश्न- 'साध्यों का साम्राज्य।' व्याख्या कीजिए।
  76. प्रश्न- नैतिक चेतना से आप क्या समझते हैं?
  77. प्रश्न- नैतिक चेतना के मुख्य तत्व बताइए।
  78. प्रश्न- नैतिक परिस्थिति से आपका क्या तात्पर्य है?
  79. प्रश्न- नैतिक परिस्थिति के लक्षण बताइए।
  80. प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? साधन व साध्य का नीतिशास्त्र में क्या महत्व है?
  81. प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं तार्किक निर्णय में अंतर क्या है?
  82. प्रश्न- क्या साध्य साधन को प्रमाणित करता है?
  83. प्रश्न- नैतिक निर्णय की आवश्यक मान्यताएँ क्या हैं? व्याख्या कीजिए।
  84. प्रश्न- नैतिकता की मान्यताओं की व्याख्या कीजिए।
  85. प्रश्न- काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक मान्यताओं का वर्णन कीजिए।
  86. प्रश्न- नैतिकता में किसका प्राधिकार है "चाहिए" का या आवश्यक का।
  87. प्रश्न- अनैतिक कर्म क्या है? व्याख्या कीजिए।
  88. प्रश्न- सुखवाद से आप क्या समझते हैं? यह कितने प्रकार का होता है?
  89. प्रश्न- मनोवैज्ञानिक सुखवाद से आप क्या समझते हैं? समीक्षा कीजिए।
  90. प्रश्न- प्राचीन सुखवाद की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  91. प्रश्न- विकासवादी सुखवाद क्या है?
  92. प्रश्न- उपयोगितावाद के लिये सिजविक की क्या युक्तियाँ हैं? व्याख्या कीजिए।
  93. प्रश्न- बैन्थम के उपयोगितावाद की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  94. प्रश्न- बैंन्थम के स्थूल परसुखवाद की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
  95. प्रश्न- मिल के परिष्कृत उपयोगितावाद का आलोचनात्मक विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  96. प्रश्न- मिल के परिष्कृत परसुखवाद की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
  97. प्रश्न- उपयोगितावाद एवं अन्तःअनुभूतिवाद के सापेक्षिक गुणों का संकेत कीजिए।
  98. प्रश्न- कर्मवाद का सिद्धान्त भारतीय दर्शन का मुख्य स्तम्भ है। व्याख्या कीजिए।
  99. प्रश्न- मिल के उपयोगितावाद की प्रमुख विशेषताएं क्या है?
  100. प्रश्न- "सुखवाद के विरोधाभास" को स्पष्ट कीजिए।
  101. प्रश्न- मनोवैज्ञानिक एवं नैतिक सुखवाद में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  102. प्रश्न- नैतिक सिद्धान्त के रूप में अन्तः प्रज्ञावाद का विवेचन कीजिए।
  103. प्रश्न- रसेन्द्रियवाद क्या है? विवेचन कीजिए।
  104. प्रश्न- दार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद का समीक्षात्मक विवेचन कीजिए।
  105. प्रश्न- बटलर के अन्तःकरणवाद या अन्तःप्रज्ञावाद सिद्धान्त का विवेचन कीजिए।
  106. प्रश्न- नैतिक गुण के विषय में अन्तः प्रज्ञावाद के विचार का विवेचन कीजिए।
  107. प्रश्न- अदार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद का विवेचन कीजिए।
  108. प्रश्न- काण्ट के अहेतुक आदेश के सिद्धान्त का आलोचनात्मक विवेचन कीजिए।
  109. प्रश्न- बुद्धिवाद या कठोरतावाद तथा सुखवाद क्या है? वर्णन कीजिए।
  110. प्रश्न- स्टोइकवाद क्या है? व्याख्या कीजिए।
  111. प्रश्न- मध्यकालीन बुद्धिवाद या ईसाई वैराग्यवाद की व्याख्या कीजिए।
  112. प्रश्न- काण्ट के कठोरतावाद के रूप में आधुनिक बुद्धिवाद की व्याख्या कीजिए।
  113. प्रश्न- काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक सूत्र का आलोचनात्मक परिचय दीजिए।
  114. प्रश्न- काण्ट के नैतिक सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
  115. प्रश्न- काण्ट के नीतिशास्त्र की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए एवं गीता के निष्काम कर्म से इसकी तुलना कीजिए।
  116. प्रश्न- काण्ट के बुद्धिवादी नीतिशास्त्र का समीक्षात्मक मूल्यांकन कीजिए।
  117. प्रश्न- काण्ट के अनुसार निरपेक्ष आदेश “Categorical Imprative” की व्याख्या कीजिए।
  118. प्रश्न- दण्ड के सिद्धान्त से आप क्या समझते हैं? दण्ड के प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  119. प्रश्न- दण्ड के सुधारात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए। क्या मृत्युदण्ड उचित है? विवेचना किजिये।
  120. प्रश्न- दण्ड के विभिन्न सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए।
  121. प्रश्न- दण्ड का अर्थ तथा उद्देश्य क्या है?
  122. प्रश्न- दण्ड का दर्शन क्या है?

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